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घोषणा से चिता तक —कहीं योजना की आग में तो नहीं जल रही है आदिवासी अस्मिता? तिरपाल का संस्कार,सरकारी वादों का अपमान,आदिवासी मां की चुप चिता पर सिस्टम की करतूतें उजागर!”

तालपत्री की चिता: आदिवासी अस्मिता पर सिस्टम की सियासी राख

धरती आबा के नाम पर जब मंच सजता है, तो सरकार खुद को आदिवासी हितैषी बताने से नहीं चूकती। मगर जब उसी धरती पर एक आदिवासी मां की मौत होती है, तो उसकी चिता पर न लकड़ी होती है, न शेडसिर्फ तालपत्री की छांव और पैरा की आग होती है।

छत्तीसगढ़ के जांजगीरचांपा ज़िले के बानापरसाही गांव में ठीक ऐसा ही हुआजहां कुछ दिन पहले ही धरती आबा उत्सव मनाया गया था। अफसरों ने मंच से भाषण दिए, नेताओं ने फोटो खिंचवाए, और आदिवासी उत्थान की बातें हवा में उड़ती रहीं। लेकिन अब उसी गांव की एक आदिवासी महिला को अंतिम विदाई खुले आसमान के नीचे, तालपत्री तानकर देनी पड़ी।

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यह सिर्फ एक गांव की तस्वीर नहीं हैये छत्तीसगढ़ की उस सच्चाई का आईना है, जहां आदिवासी समाज को मरने के बाद भी सम्मान की छांव नसीब नहीं।

जांजगीरचांपा | रिपोर्टन्यायधानी डेस्कछत्तीसगढ़ के जांजगीरचांपा ब्लॉकअकलतरा के आदिवासी बहुल गांवों की ज़मीनी सच्चाई एक बार फिर बानापरसाही से सामने आई हैजहां एक आदिवासी महिला की मृत्यु के बाद, पूरे दिन शव घर में पड़ा रहा, क्योंकि गांव में न तो कोई पक्का मुक्तिधाम था, न बारिश से बचाव की व्यवस्था। अंततः तालपत्री की अस्थायी छांव में शव को रखकर, पैरा जलाकर अंतिम संस्कार किया गया।

यह कोई पहली या अनोखी घटना नहीं है। बानापरसाही, बुचीहरदी, पोड़ी दल्हा जैसे गांवों में यह दैनिक अपमानजनक पीड़ा बन चुकी है। इंसान होने के बुनियादी अधिकारमरने के बाद इज्ज़त के साथ विदाईसे भी आदिवासी समाज को वंचित किया जा रहा है।

https://youtu.be/Ga1CiNnLIds?si=-YPdUCyAuzbLaCbh

धरती आबा उत्सव के चंद दिन बाद, आदिवासी समाज की अंतिम विदाई भीतिरपालके नीचे

  ठगी के आरोपी की पुलिस रिमांड के दौरान बिगड़ी तबीयत, अस्पताल में मौत

विडंबना देखिएकुछ दिन पहले इसी गांव बानापरसाही में सरकारी तामझाम के साथ धरती आबा उत्सव मनाया गया। अधिकारी, नेता, मंच, भाषण, बिरसा मुंडा का गौरवगान, आदिवासी उत्थान की बात
लेकिन आज उसी गांव की एक आदिवासी महिला की लाश को बरसात थमने का इंतजार करते हुए घर में रखा गया, और फिर तालपत्री तानकर खुले आसमान के नीचे चिता सजाई गई।

पोड़ी दल्हा और बुचीहरदी के जख्म आज भी ताज़ा

पिछले साल पोड़ी दल्हा में एक महिला की मृत्यु के बाद शव को कीचड़ और खेतों से होकर मुक्तिधाम तक ले जाया गया था। तस्वीरें वायरल हुईं, मीडिया ने सवाल उठाया। ग्रामीणों ने शव सड़क पर रखकर चक्का जाम किया। प्रशासन ने मुक्तिधाम निर्माण की घोषणा की, लेकिन आज तक वहाँ बेजा कब्ज़े और फाइलों की धूल के अलावा कुछ नहीं बदला।

बुचीहरदी में भी तिरपाल तानकर शवदाह करना पड़ा। खबर छपी तो विधायक राघवेंद्र सिंह ने ₹5 लाख स्वीकृत किएलेकिन निर्माण कहां तक पहुँचा, यह आज भी रहस्य है।

प्रशासन की संवेदनहीनता, कमीशनखोरी का कड़वा सच

होना तो यह चाहिए था कि प्रशासन समूचे ब्लॉक में मुक्तिधामविहीन गांवों की सूची बनाकर प्राथमिकता से निर्माण कराता, लेकिन कमीशनखोरी और कागज़ी घोषणाओं की सियासत में गरीब आदिवासी समाज को मरने के बाद भी इज्जत नहीं मिलती।

मुख्यमंत्री आदिवासी, लेकिन समाज अब भी उपेक्षित!

छत्तीसगढ़ में एक आदिवासी मुख्यमंत्री हैंयह गर्व की बात हो सकती है, लेकिन जब उनके ही समाज की महिलाएं तालपत्री के नीचे जलती हैं, तो यह गर्व भी अपराधबोध में बदल जाता है।

क्या एक आदिवासी मुख्यमंत्री के लिए यह पीड़ा नहीं होनी चाहिए? क्या सत्ता का आदिवासी नेतृत्व आदिवासी समाज की ज़मीनी तकलीफ नहीं समझ पा रहा?

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