सत्ता के बदलते सुर में गुम होती पत्रकारिता की आत्मा — प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार अजयभान सिंह का तीखा व्यंग्य मीडिया पर

सत्ता बदली तो सुर भी बदले: छत्तीसगढ़ में राजनीति और मीडिया का नया अध्याय
छत्तीसगढ़ की सत्ता बदल गई,
पर दरबार वही हैं — बस राजा नया है और भजन के बोल बदल गए हैं। वरिष्ठ पत्रकार अजयभान सिंह ने अपनी चर्चित रिपोर्ट “अथ कोसल देश मीडिया आख्यानम” में राजनीति और मीडिया के इस सांठगांठ वाले यथार्थ को जिस धार से उकेरा है, वह आज की पत्रकारिता के आईने में एक करारा तमाचा जैसा है। यह वह कथा है जहाँ कलम बिकती नहीं — बल्कि झुकती है,जहाँ खबरें अब “सच” नहीं, “सहमति” से लिखी जाती हैं।
सत्ता के बदलते समीकरणों में पत्रकारों के सुर भी बदल जाते हैं,और खबर का मोल अब सत्य से नहीं, विज्ञापन दरों से तय होता है।अजयभान सिंह की लेखनी इस मौन की चीरफाड़ करती है
बेबाक, तीखी और बेमिसाल।
उनकी यह टिप्पणी सिर्फ़ एक लेख नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की मीडिया संस्कृति पर दर्ज़ एक कालजयी व्यंग्य है, जो पूछती है —क्या लोकतंत्र में चौथा स्तंभ अब दरबार का हिस्सा बन चुका है?
रायपुर | छत्तीसगढ़ की राजनीति हमेशा से सत्ता परिवर्तन और वफ़ादारी के खेल की भूमि रही है।
वर्ष 2023 के विधानसभा चुनाव ने इस धारणा को एक बार फिर सच साबित किया।
भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार, जिसने पाँच वर्षों तक राज्य पर शासन किया, जनता के निर्णय से सत्ता से बाहर हो गई।
भारतीय जनता पार्टी ने पुनः वापसी की और विष्णु देव सै मुख्यमंत्री बने।
लेकिन इस परिवर्तन की सबसे दिलचस्प कहानी सिर्फ़ सत्ता की कुर्सी तक सीमित नहीं थी –
यह कहानी थी उन लोगों की भी, जिन्होंने सत्ता के साथ अपना रंग और रुख दोनों बदल लिए।
नए मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के नेतृत्व में भाजपा ने कमलदल” का झंडा फिर फहराया।
डॉ. रमन सिंह, जो पहले मुख्यमंत्री रह चुके थे, अब मार्गदर्शक की भूमिका में आ गए।
राज्य में जीत का उत्सव था, पर अंदर ही अंदर असहमति भी थी।
पार्टी के कई पुराने चेहरे नए नेतृत्व से असहज महसूस कर रहे थे।
उधर कांग्रेस खेमे में पराजय का शोक था, पर कई वरिष्ठ नेता जो भूपेश बघेल की एकछत्र कार्यशैली से परेशान थे, वे मन ही मन राहत महसूस कर रहे थे।
राजनीति का यह उतार-चढ़ाव नया नहीं था, पर इस बार एक और क्षेत्र में हलचल थी – वह था मीडिया का संसार।
मीडिया का मनोभाव
भूपेश बघेल सरकार के दौरान मीडिया के एक बड़े वर्ग को भरपूर सरकारी कृपा मिली थी।
पत्रकारों को सरकारी विज्ञापन, समारोहों में सम्मान, और नजदीकी संवाद का अवसर मिला।
राज्य में “दरबारी पत्रकारिता” शब्द चर्चित हो चला था – वह पत्रकारिता जो सत्ताधारी के हित में स्वर उठाती है।
जब सत्ता बदली, तो वही वर्ग सबसे ज़्यादा बेचैन दिखा।
कई पत्रकारों ने खुले तौर पर मायूसी जताई।
कुछ ने सोशल मीडिया पर भावनात्मक पोस्ट लिखे –
“हमारी सुनने वाली सरकार चली गई, अब पता नहीं पत्रकारिता का क्या होगा।”
कुछ ने तो कई दिनों तक अपने कार्यक्रम बंद कर दिए और कैमरों से दूरी बना ली।
पर धीरे–धीरे वही चेहरे फिर लौटे, बस दिशा बदल गई।
अब वही लोग जो पहले कांग्रेस की नीतियों की प्रशंसा में लेख लिखते थे,
नए मुख्यमंत्री विष्णु देव सै के भाषणों में “नई शुरुआत”, “जनता का शासन”, “शालीन नेतृत्व” जैसे शब्द खोजने लगे।
उनका सुर बदला, वाक्य वही रहे।
दरबार वही, बस राजा बदला।
एक मशहूर पत्रकार, जो पहले कांग्रेस शासन के घनिष्ठ माने जाते थे,
सत्ता परिवर्तन के कुछ ही दिनों बाद नए मुख्यमंत्री के स्वागत समारोह में पहुँचे।
वे अपने दो पुराने मित्रों के साथ थे – एक पहले से भाजपा सरकार के प्रचार–विभाग से जुड़ा था।
उसने मुस्कुराते हुए परिचय कराया –
“महाराज, ये वही पत्रकार हैं जिन्होंने पिछली सरकार में सच्चाई लिखने के कारण बहुत उत्पीड़न झेला।
इनकी ईमानदारी की कहानी सब जानते हैं।”
मुख्यमंत्री विष्णु देव सै स्वभाव से शांत और संवेदनशील थे,
उन्होंने सहानुभूति भरी निगाह से उस पत्रकार की ओर देखा।
पत्रकार ने अवसर भाँप लिया – उसकी आवाज़ भावनात्मक हो गई।
वह बोला –
“महाराज, पिछले पाँच वर्षों में मैंने जो अन्याय देखा, उसे शब्दों में नहीं कह सकता।
आपके नेतृत्व में अब यह राज्य फिर से सच्चे न्याय और करुणा का अनुभव करेगा।
आप जैसे दयालु राजा को पाकर छत्तीसगढ़ धन्य हुआ।”
मुख्यमंत्री ने कुछ नहीं कहा, पर भावुक हो उठे।
आसपास बैठे सलाहकार इस नाटकीय भाषण से बहुत प्रभावित हुए।
कुछ ही महीनों में वह पत्रकार नए शासन का प्रिय चेहरा बन गया।
उसके सरकारी अनुबंध लौट आए, सम्मान समारोहों में नाम आने लगा, और उसका प्रभाव पहले से अधिक बढ़ गया।
पुराने चेहरों की वापसी
डॉ. रमन सिंह के शासनकाल में जो पत्रकार “राजगुरु” माने जाते थे,
उन्होंने भी अपनी वापसी तेज़ी से कर ली।
उनकी भाषा में अब “संघ की संस्कृति”, “सेवा की परंपरा” और “विकास का विश्वास” जैसे वाक्य लौट आए।
राज्य के प्रचार विभाग में उनके पुराने प्रशंसक फिर सक्रिय हो गए।
थोड़े ही समय में वे फिर से टीवी डिबेटों, सरकारी कार्यक्रमों और संपादकीय पन्नों पर नज़र आने लगे।
ऐसा लगने लगा जैसे समय पाँच साल पीछे लौट गया हो।
भूपेश बघेल के बेहद वफ़ादार माने जाने वाले कुछ पत्रकारों ने भी चतुराई से तालमेल बैठा लिया।
शुरुआत में वे उदास थे, लेकिन फिर भाजपा के प्रचार–विभाग में अपने मित्रों की मदद से नए शासन से जुड़ गए।
किसी ने कहा – “सत्ता बदलती है, पर संबंध कभी नहीं टूटते।”
वास्तव में यही हुआ।
पुराने संबंध नए लाभ में बदल गए।
जो बाहर रह गए
लेकिन हर किसी की किस्मत इतनी आसान नहीं थी।
कुछ लोग जो चुनाव के समय भाजपा के लिए पर्दे के पीछे काम करने का दावा करते थे,
उन्होंने भी सरकारी पहचान पाने की कोशिश की।
उन्होंने कहा कि “हमने भीतर से मदद की थी, हमें भी सम्मान मिलना चाहिए।”
पर भाजपा के प्रचार विभाग ने इन्हें “झूठे दावे करने वाले” कहकर किनारे कर दिया।
इन पर आरोप लगा कि वे सत्ता–लाभ के लिए ग़लत बातें फैला रहे हैं और मुख्यमंत्री को गुमराह कर रहे हैं।
नतीजतन, ऐसे सभी लोगों को सरकारी कार्यक्रमों और मीडिया–सूचियों से हटा दिया गया।
जो कभी सत्ता–समीप के अभ्यस्त थे, वे अचानक अंधेरे में चले गए।
उनकी शिकायतें अब केवल सोशल मीडिया पोस्टों में दिखीं –
“हमने मदद की, पर हमें भुला दिया गया।”
लेकिन उन्हें सुनने वाला कोई नहीं था।
पत्रकारिता और सत्ता का रिश्ता
छत्तीसगढ़ में यह कोई नई कहानी नहीं थी।
हर सत्ता परिवर्तन के साथ पत्रकारिता का रुख भी बदलता रहा है।
2018 में जब कांग्रेस सत्ता में आई थी,
तब भी कई पत्रकार जो पहले भाजपा के करीबी माने जाते थे,
एक झटके में कांग्रेस की “विकास कथा” लिखने लगे थे।
2023 में बस परिदृश्य उलट गया –
अब वही चेहरे नए सत्ता–केंद्र में दिखाई दिए,
बस नारे बदल गए।
कुछ युवा पत्रकार, जिन्होंने तटस्थता बनाए रखने की कोशिश की,
वे इस पूरे तमाशे को देख कर हतप्रभ थे।
एक वरिष्ठ संपादक ने निजी बातचीत में कहा,
“यह प्रदेश विचारधारा से नहीं, सत्ता से संचालित पत्रकारिता का सबसे सटीक उदाहरण है।
सत्ता जिसके पास होती है, सत्य उसी का हो जाता है।
उनकी बात व्यंग्य भी थी और वास्तविकता भी।
सत्ता की ‘महाठगिनी माया’
दरअसल, इस पूरी कथा का केंद्र यही है –
सत्ता एक ऐसी “माया” है जो हर पाँच साल में नए चेहरे को अपना बना लेती है।
जो कल विरोध में था, आज समर्थन में है;
जो कल सत्ता का प्रिय था, आज कोने में भुला दिया गया है।
पत्रकारिता, जो कभी जनहित का प्रहरी कही जाती थी,
अब राजनीतिक समीकरणों की एक अनिवार्य शाखा बन गई है।
राजनीति और मीडिया दोनों के बीच “लेन–देन” का एक अलिखित अनुबंध चलता है –
जहाँ प्रशंसा का मतलब अवसर है, और आलोचना का मतलब दूरी।
वर्ष 2024 तक यह व्यवस्था फिर से सामान्य हो गई।
राजधानी रायपुर के प्रेस क्लब में वही चेहरे लौट आए।
नए पोस्टर लगे, नए नारे बने,
पर चाय की मेज़ों पर चर्चाएँ वैसी ही थीं।
कभी कांग्रेस की “जननीति” की तारीफ होती थी,
अब भाजपा की “सुराज यात्रा” की।
जो कल टीवी पर सत्ता की आलोचना करते थे,
अब उसी मंच से नए मंत्रियों का स्वागत करते दिखे।
यह दृश्य मानो यह कह रहा था कि पत्रकारिता की आत्मा अब सत्ता के रंग में रंग चुकी है।
मौन में समा गया व्यंग्य
इन सब घटनाओं को समझाने के लिए लेखक अजयभान सिंह ने अपनी कथा में
स्वामी अड़बड़ानंद का रूपक गढ़ा था –
जो कथा सुनाते–सुनाते अंत में गहरी साँस लेकर मौन में लीन हो जाते हैं।
वह मौन प्रतीक है उस असहजता का,
जो सच्चे पत्रकार या सजग नागरिक के भीतर होती है
जब वह देखता है कि सत्य और सत्ता के बीच अब कोई रेखा नहीं बची।
राजनीति ने मीडिया को अपना दर्पण नहीं, अपना चेहरा बना लिया है।
और इस सबके बीच,
वे कुछ पत्रकार, जिन्होंने बिना रंग बदले अपने विचारों पर डटे रहे,
वे आज भी किनारे खड़े हैं –
शायद यही उनकी सबसे बड़ी सजा और सबसे बड़ा सम्मान दोनों है।
रायपुर के एक वरिष्ठ विश्लेषक की टिप्पणी इस पूरे माहौल को सबसे सटीक रूप में समझाती है –
“छत्तीसगढ़ में सरकारें बदलती हैं, पर दरबारी वही रहते हैं।
केवल राजा और जय-जयकार के नारे बदलते हैं।”
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