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टोटिन डांगरा की विडंबना: जहां ‘गोटूल’बना स्कूल और बच्चों की पढ़ाई प्रकृति के भरोसे

रिपोर्टर: मनकू नेताम, संगम, कांकेर

गर्मी में तपती ज़मीन पर बैठते हैं बच्चे और बारिश में जब छत से पानी टपकता है तो पढ़ाई ठप हो जाती है।

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छत्तीसगढ़ के माइनिंग क्षेत्र रावघाट की गोद में बसा एक छोटा सा गांव है — टोटिन डांगरा, जो ग्राम पंचायत फूलपाड़ का आश्रित गांव है। यहां शिक्षा की असलियत न स्लोगन में है, न किसी योजना में — बल्कि गोटूल में है। हां, वही पारंपरिक ‘गोटूल’ जो कभी समुदाय के सांस्कृतिक केंद्र हुआ करते थे, अब 17 नन्हे बच्चों के लिए स्कूल का विकल्प बन चुके हैं।

पांच वर्षों से जर्जर स्कूल, गोटूल में जारी है शिक्षा
यहां का प्राथमिक शाला भवन पिछले पांच वर्षों से पूरी तरह जर्जर और खतरनाक स्थिति में है। छत से प्लास्टर झड़ चुका है, दीवारों में गहरी दरारें हैं, और अब वह भवन उपयोग के लायक नहीं रह गया। मजबूरी में बच्चों की पढ़ाई गांव के पारंपरिक गोटूल में कराई जा रही है — जहां न छत की गारंटी है, न सुविधा का नामोनिशान।

न टेबल, न कुर्सी, न पंखा — शिक्षा की बुनियादी सुविधाओं का अभाव
गोटूल में न तो बच्चों के बैठने की कोई पक्की व्यवस्था है, न बिजली, न शौचालय और न ही पीने के पानी की सुविधा। छात्रा स्तुति गावड़े और कुमारी रीतिका गावड़े बताती हैं,

हम रोज स्कूल आते हैं लेकिन बैठने की जगह नहीं मिलती। बारिश हो तो पढ़ाई बंद हो जाती है। हम भी अच्छे क्लासरूम में कुर्सी-पंखे के नीचे पढ़ना चाहते हैं, जैसे हमारे दोस्त दूसरे गांव में पढ़ते हैं।”

पांच साल से न मरम्मत, न नया भवन — सिर्फ आश्वासन
ग्रामीणों का कहना है कि स्कूल भवन की हालत कई बार अधिकारियों को बताई गई, आवेदन, फोटो, सब कुछ भेजा गया, लेकिन स्थिति जस की तस बनी हुई है।

शिक्षक अर्जुन सिंह पटेल और शिक्षिका सरिता कोटारी भी लगातार इस विषय को लेकर शिक्षा विभाग को सूचित करते रहे हैं, लेकिन विभागीय कार्रवाई अब तक शून्य रही है।

ग्राम सरपंच बीरसिंह गावड़े कहते हैं,
“मेरे द्वारा कई बार BEO और अन्य अधिकारियों को आवेदन दिया गया। फोटो तक भेजे गए, लेकिन आज तक न मरम्मत हुई, न नया भवन स्वीकृत हुआ,और न ही कोई देखने आया।”

माइनिंग क्षेत्र में करोड़ों की आमद, फिर भी शिक्षा उपेक्षित क्यों?
रावघाट क्षेत्र से हर साल लाखों-करोड़ों की आय लौह अयस्क खनन से होती है। माइनिंग कंपनियां CSR (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) फंड के तहत क्षेत्र के विकास के दावे करती हैं। लेकिन विडंबना यह है कि उन्हीं माइंस से प्रभावित गांव टोटिन डांगरा में एक पक्का स्कूल भवन तक नहीं बन पाया।

ग्रामीण मदन सिंह कहते हैं:
“विकास के नाम पर सिर्फ गड्ढे और कागज़ भर दिए गए हैं। स्कूल हो, स्वास्थ्य सुविधा हो — कुछ भी नहीं है।”

शिक्षा विभाग की चुप्पी — प्रस्ताव ‘ऊपर’ भेजने का ढाल
ग्रामीणों और शिक्षकों ने कई बार जनपद शिक्षा अधिकारी, जिला शिक्षा अधिकारी से लेकर प्रशासन तक गुहार लगाई। पर हर बार यही जवाब मिला:

प्रस्ताव ऊपर भेजा गया है, स्वीकृति मिलते ही काम शुरू होगा।” पर न प्रस्ताव स्वीकृत होता है, न काम शुरू होता है।

अब सवाल उठते हैं…
क्या खनन कंपनियों द्वारा दिया गया CSR फंड सचमुच ज़रूरतमंद गांवों तक पहुँच रहा है?

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क्या सरकार और शिक्षा विभाग के लिए आदिवासी क्षेत्र की ये बुनियादी ज़रूरतें प्राथमिकता में नहीं हैं?

क्या 2025 में भी हमारे देश के कुछ बच्चे बारिश में गोटूल से घर लौटने को ही शिक्षा मानेंगे?

टोटिन डांगरा जैसे गांव देश के उन हिस्सों की तस्वीर हैं, जहां “शिक्षा सबका अधिकार है” केवल किताबों और भाषणों तक सीमित है। यहां हकीकत यह है कि बच्चे बिना छत के पढ़ रहे हैं, शिक्षक बिना संसाधन के पढ़ा रहे हैं, और प्रशासन आंख मूंदे बैठा है।

जब तक नीतियाँ ज़मीन पर उतरेंगी नहीं, तब तक इन गांवों में गोटूल ही स्कूल रहेंगे — और हर बारिश, एक छुट्टी।

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